सोमवार, अगस्त 07, 2017

वर्णिका, राजनीति और रक्षाबंधन


बहुत कुछ टूट रहा है
खंड-खंड विघटित हो रहा है।
अब अंतर्मात्मा आत्महित पर ही जागती है।
पिफर सो जाती है शीतकालीन निद्रा में।
बदल जाती हैं,
आदर्शों, मयार्दाओं और उच्चम मानदंडों
की परिभाषाएं।
बिंदी, झुमका, मेहंदी, पायल कर रहे रुदन
यह कैसा रक्षाबंधन?
‘पिंक’ की ‘न’ पर न्योछावर ढेरों अवॉर्ड,
हर किरदार खेलता है स्त्री -विमर्श का कार्ड।
बेटियां नहीं होंगी, बहू कहां से लाओगे?
सवाल अहम था,
बना जनमत, मिला बहुमत।
कैक्टस के जंगल में सुनाई दे रहा रातरानी का क्रंदन।
यह कैसा रक्षाबंधन?
भारत माता की जय...
पर माता की बेटी जी रही सभय?
यह कैसी राजनीति, जो संवदेनाओं को रही बींध
जिस तरह अच्छा-बुरा, तेरा-मेरा नहीं होता आतंकवाद,
उसी तरह अच्छा-बुरा, तेरा-मेरा नहीं होता कोई अपराध।
अपराधी से ज्यादा घातक होता है
अपराध को नि:शब्द देखना।
एक थी निर्भया, एक है वर्णिका
दोनों को मिली मन के काम और मन के वक्त की सजा।
रसूखदारों से है टक्कर,
चुप हैं शीर्ष, स्वाति और खट़टर।
सेंवई, छेने, और रसमलाई की तरलता समेटे
बड़ा निष्ठुर हो गया है रक्षाबंधन।

-दिवाकर पाण्डेय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें