बुधवार, जून 29, 2011

मां को कुछ नहीं आता

मां का स्थान ईश्वर से ऊपर होता है। वह जननी है। इसलिए हम उसके ऋणी हैं। यह जीवन और हर सांस उसकी है। मैंने भी अपने तरीके से मां को पुष्पांजलि देने की कोशिश की है.. कविता
मां को कुछ नहीं आता

मेरे घर में गैस नहीं थी,
मां स्टोव पर खाना पकाती थी
उसकी धांय-धांय करती आवाज
को अनसुना कर
बड़े चाव से, जतन से
रोटियों को उलटती-पलटती थी
बाऊ जी कहते तुम्हें खाना पकाना नहीं आता
मां घर में झाड़ू बहोरती थी
घर की बिखरी चीजों को सजाती थी
छोटे से मकान को
घर बनाने के लिए
दिनभर खटती थी।
तिल-तिल मरती थी
फिर भी हंसती थी
बाऊजी कहते
तुम्हें मुस्कुराना नहीं आता।
मां आगे की सोचती थी
वर्तमान सें भविष्य में जाने को अकुलाती थी
स्टोव से निकलकर
अंगीठी और चूल्हे को फांदकर
गैस के सपने देखती थी
मां पढ़ी-लिखी नहीं थी
बाऊ जी ज्ञानवश कहते
तुम्हेंं सपने देखने नहीं आते
आज मां बूढी हो चली है
वक्त की धूल बाऊजी पर भी
चढ़ी है
रोटियों की गोलाइयां पकाते-पकाते
मां सूरज-चांद की गोलाइयां भूलने लगी है
बाऊजी आज भी यही कहते हैं
तुम्हें जीना नहीं आता
मां सोच रही है कि आखिर
इतना सबकुछ उसी को
क्यों नहीं आता।

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