बुधवार, दिसंबर 11, 2013

अब हम उस मकाम पर आ गए हैं

अब हम उस मकाम पर आ गए हैं  
हमारी शक्ल से आईने शर्मा गए हैं।

जब तक बजे गीत हमारे, हम सुनते रहे।
उसने छेड़ी तान तो हम उकता गए हैं।

विकास की नदी में नहाना जरूरी है लेकिन 
हम अपनी ही खुदी से क्यों सकुचा गए हैं।

बादलों ने शायद इसलिए बरसना छोड़ दिया
वो भी हमारी कारगुजारियों से घबरा गए हैं।

उन्होंने तालियां बजाईं न वाह किया मेरे रकीब
वो सबको गले लगा, दिलो-जां में समा गए हैं।
- दिवाकर पाण्डेय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें