सफर
में हैं हम दोनों, मंजिल तेरी भी है, मेरी भी।
जरा
आहिस्ता चल, जिंदगी तेरी भी है, मेरी भी।
मंजिल
जहां है वहीं रहेगी, फिर यह हड़बड़ी क्यों है।
बड़ी
नाजुक है सांसों की डोर, वह तेरी भी है, मेरी भी।
ये
बाइक, ये कारें, ऑटो, ये रिक्शा, जरिया हैं पहुंचने के।
तू
अहम का वहम मत पाल, सड़क तेरी भी है, मेरी भी।
इधर-उधर, ऐसे-वैसे, यहां-वहां, क्या चलना जरूरी है।
किस्सा
नहीं हकीकत में रहना है, इतनी समझ तेरी भी है, मेरी भी।
राखी, सिंदूर, रौनक, रोटी, उम्मीद- इन्हें भी मौत आती है।
-
-दिवाकर पाण्डेय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें