सोमवार, मई 25, 2020

अल्फाजों के मेले में सन्नाटे का शोर है

इन दिनों बड़ा अजीब सा दौर है। वक्त की नब्ज को थामा तो वह उतनी ही तेज चल रही थी, जितनी की मुंबई से चली श्रमिक स्पेशल। गोरखपुर जाना था लेकिन राउरकेला पहुंच गई। उलटवांसी यह कि गलती रेलवे की नहीं, लगातार गलती कर रहे (!) मजदूरों की थी। इस दौर को समझते हुए अचानक मन के कागज पर कुछ शब्द उकर आए....

अल्फाजों के मेले में सन्नाटे का शोर है,
आज अंधेरा पूछ रहा उजियारा किस ओर है।

आंखों में खालीपन है और सीने में आह है, 
तपती सड़कें नाप रहे छालों भरे कई पांव हैं। 
पांव हमसे पूछ रहे गांव मेरा किस ओर है?

सूरज की लाली नहीं, ये मांगों का सिंदूर है,
सड़कों पर लाशें हैं और सत्ता मद में चूर है।
मद की मय पी भुजंग फुफकार रहे चहुं ओर हैं।

जठराग्नि की तपिश देखो मनुज हो गया राख है, 
आसमान से बरस रहा दावानल सा संताप है। 
राहें भी उस ओर मुड़ीं, बड़वानल जिस ओर है। 

छल-बल पल-पल और प्रलय अग्रसर प्रतिपल
बच्चों का क्रंदन, ममता का ढल रहा आंचल। 
सिंहासन मौन बने, वोटों के गणित का जोर है।

आज अंधेरा पूछ रहा उजियारा किस ओर है..

-दिवाकर पाण्डेय

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